कर्नाटक में साल 2019 में बीजेपी ने एक बिल्कुल नया दांव चला। सीएम बीएस येदियुरप्पा ने जब अपने मंत्रिमंडल की घोषणा की, तो उसमें एक या दो नहीं, बल्कि तीन-तीन डिप्टी सीएम थे। कई सीनियर नामों को नज़रअंदाज़ कर गोविंद करजोल, लक्ष्मण सावदी और सीएन अश्वथ नारायण को दिया गया था उप मुख्यमंत्री पद। और इन तीन नामों को ही इसलिए क्योंकि इनके ज़रिए राज्य के तीन प्रमुख समुदायों को साधने की कवायद थी। सावदी आते हैं प्रभावशाली लिंगायत समुदाय से। अश्वथ नेता हैं वोक्कालिंगा के और करजोल ताल्लुक रखते हैं दलित समुदाय से।  तीन नए डिप्टी सीएम के ज़रिए संतोष राज्य में पार्टी के लिए नया नेतृत्व खड़ा करना चाहते थे, वह भी उन तीनों समुदायों से जिनके पास सत्ता की चाबी मानी जाती है। इनमें से लिंगायत और वोक्कालिंगा तो बीजेपी के वोट बैंक माने जाते हैं। येदियुरप्पा ख़ुद लिंगायत समुदाय से हैं। उनके रहते, उनके ही मंत्रिमंडल में, उनके नीचे एक दूसरे लिंगायत नेता को आगे बढ़ाने के लिए हिम्मत चाहिए थी और जोखिम उठाने का साहस भी।बीएल संतोष में ये सारी खूबियां हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वह मीडिया से बहुत ज़्यादा करीबी नहीं रखते, लेकिन मीडिया में उनका नाम छाया रहता है। कर्नाटक चुनाव (Karnataka Assembly Elections) में भी बीजेपी से जुड़ी हर ख़बर के पीछे आपको बीएल संतोष का नाम दिख जाएगा। अभी कुछ दिन पहले ही बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व सीएम जगदीश शेट्टार ने आरोप लगाया कि उन्हें विधानसभा चुनाव के लिए टिकट नहीं मिलने के पीछे हाथ है संतोष का। शेट्टार ने यहां तक कहा कि लाखों कार्यकर्ताओं के खून-पसीने से जो संगठन खड़ा किया गया है, संतोष उसे बर्बाद कर रहे हैं। उनकी अपनी निजी महत्वाकांक्षा है।

हालांकि पार्टी से जुड़े और संतोष के करीबी लोगों का मानना है कि दूसरा कोई आरोप भले लगा दिया जाए, लेकिन निजी महत्वाकांक्षा की बात तो किसी भी तरह से गले नहीं उतरती। पार्टी के भीतर अपने लिए इतना भरोसा पैदा कर लेने वाले संतोष हैं कौन?वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रचारक, जो बीजेपी से जुड़ गए। संतोष कर्नाटक के उडुपी ज़िले से आते हैं। शिवल्ली ब्राह्मण परिवार के हैं। उडुपी नाम के रेस्तरां आपने ज़रूर सुने होंगे। हो सकता है कि वहां जाकर दक्षिण भारतीय व्यंजनों का स्वाद भी लिया हो। दरअसल, शिवल्ली ब्राह्मण इन्हीं ख़ास उडुपी होटलों की वजह से देशभर में मशहूर हो चुके हैं।

संतोष एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते थे। कम उम्र में ही उन्होंने संघ का साथ पकड़ लिया। एक तरफ संघ का काम चलता रहा और साथ में पढ़ाई भी। उन्होंने इंस्ट्रूमेंटेशन टेक्नॉलजी में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है।साल 1993 में संतोष के जीवन में अहम मोड़ आया, जब उन्होंने तय कर लिया कि अब पूरा वक़्त संघ को देना है। वह आरएसएस के फुल टाइम प्रचारक बन गए। उडुपी, शिवमोंगा, मैसूर और बंगलुरु में लंबे समय तक काम किया उन्होंने। अपने शुरुआती दिनों में भी वह मीडिया से दूरी बनाकर रखते थे और पूरा फोकस होता था अपने काम पर। इसी वजह से साल 2006 में उन्हें बीजेपी संगठन में लाया गया। कर्नाटक के पार्टी महासचिव के तौर पर उन्होंने कमान संभाली और अगले करीब आठ साल यानी 2014 तक इसी पद पर रहे। उनके कार्यकाल के दौरान ही पार्टी कर्नाटक की सत्ता में आयी।साल 2014 में उन्हें बीजेपी का जॉइंट जनरल सेक्रेटरी बना दिया गया और 2019 में उन्हें मिला संगठन महासचिव का अहम पद।

बीजेपी में क्या अहमियत है राष्ट्रीय महासचिव की?

यह पद एक तरह का पुल है संघ और बीजेपी के बीच का। राष्ट्रीय और राज्यों, दोनों स्तर पर आमतौर पर संघ प्रचारकों को यह जिम्मेदारी दी जाती है। उनके कामों को इस तरह से समझ सकते हैं -

- राष्ट्रीय महासचिव पद पर बैठा शख़्स भले ही सीधे राजनीति में ना हो, लेकिन उसे संगठन के भीतर महत्वपूर्ण फैसले लेने वाला माना जाता है।
- संघ की अपनी एक विचारधारा है और राजनीतिक पार्टी होने के नाते बीजेपी की अलग ज़रूरत। इस विचारधारा और ज़रूरत में सामंजस्य बैठाकर चलना।
- जब भी किसी मुद्दे पर संगठन के भीतर विरोध की स्थिति बनती है, तो राष्ट्रीय महासचिव की राय अहम हो जाती है।
- पार्टी के लिए रणनीति तैयार करना और बगावत होने की स्थिति में संभालना, जैसा कि अभी कर्नाटक चुनाव में देखने को मिला, जहां बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता बागी हो गए।

जाहिर तौर पर बीएल संतोष के पास यह सारी जिम्मेदारी है और उनके काम करने का तरीका अलहदा है। कुछ मामलों में उनकी राय बिल्कुल स्पष्ट है और जो उनके फैसलों में भी दिखती है- परिवारवाद की राजनीति को ख़त्म करना, नए चेहरों को आगे बढ़ाना और व्यक्तिगत तरक्की के बजाय पार्टी के विस्तार को अहमियत देना।
बीएल संतोष के दौर में येदियुरप्पा पावर में आए, लेकिन माना जाता है कि कुछ मामलों को लेकर दोनों में एकमत था नहीं। संतोष को सख्त ऐतराज था येदियुरप्पा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर। साथ ही, वह येदियुरप्पा के बेटे को आगे बढ़ाने के भी ख़िलाफ़ थे। यही वजह है कि उन्होंने तीन दूसरे नेताओं को चुना और डिप्टी सीएम जैसी जिम्मेदारी दी। तेजस्वी सूर्या और सीटी रवि जैसे युवा नेताओं को आगे बढ़ाने में भी बीएल संतोष का हाथ माना जाता है। बीजेपी के कई राज्यसभा चेहरों को उन्होंने ही चुना और कई को संगठन के भीतर जिम्मेदारी सौंपी।
वह हार्ड लाइनर माने जाते हैं, जिसका एक ही मकसद है, पार्टी की जीत। गुजरात और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों में भी उनके पास जिम्मेदारी थी। चुनावों के पहले इन राज्यों में सीएम बदले गए और इसके बावजूद पार्टी ने सत्ता में वापसी कर ली। उन्हें करीब से जानने वाले लोगों का कहना है कि संतोष किसी भी क़ीमत पर पार्टी और उसकी विचारधारा को आगे बढ़ाना चाहते हैं। ऐसे में किसी की व्यक्तिगत महत्वकांक्षा और लक्ष्य का कोई मतलब नहीं रह जाता। यही वजह है कि ज़रूरत पड़ने पर वह बिना हिचक किसी के भी पर कतरने से संकोच नहीं करते और अभी तक ज़्यादातर दांव उनका सटीक बैठा है।

संतोष ज़मीन पर रहकर काम कर चुके हैं और इंजीनियरिंग के छात्र थे। ऐसे में वह सियासत को भी समझते हैं और आंकड़ों को भी। कर्नाटक में भी उन्होंने एक क़दम आगे की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है। राज्य में अभी विधानसभा चुनाव की गूंज है, लेकिन इसके बाद ज़िला और तालुका पंचायत चुनाव होने हैं। संतोष की अगुवाई में पार्टी ने अभी से उसके लिए भी माहौल बनाना शुरू कर दिया है।

अभी तक जिस भी सूबे में चुनाव होता था, वहां पार्टी डबल इंजन की सरकार के फायदों को गिनाती। मतलब कि केंद्र और राज्य, दोनों जगह बीजेपी की सरकार। कर्नाटक में पार्टी तीन इंजन की सरकार की बात कह रही है। केंद्र और सूबे के साथ उसने पंचायत को भी जोड़ लिया है इसमें। कार्यकर्ताओं को ताकीद है कि विधानसभा चुनाव के लिए जब वोटर्स के बीच पहुंचें, तो उस समय अगले चुनाव पर भी बात करें।एक जानकार कहते हैं, संतोष को टाइमिंग का महत्व पता है। ऐसे ही उन्हें इतने बड़े संगठन में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं मिल गई।

 

न्यूज़ सोर्स : indiatimes.com